अगर आप कोरोना वायरस के हॉटस्पॉट वाले इलाके में नहीं रहते हैं और ज़रूरी सामान राशन की दुकान से खरीदते हैं तो बहुत मुमकिन है कि आपको अपने पसंदीदा ब्रैड का सामना आजकल नहीं मिल रहा होगा. कई लोगों की शिकायत है कि मैगी गायब है, कई लोगों का कहना है कि उनके पंसदीदा बिस्किट नहीं मिल रहे हैं. 21 दिन के लॉकडाउन में ज़रूरी सामानों पर तो कोई रोक नहीं थी, लोगों को सामना मिलता भी रहा है. लेकिन चिंता जताई जा रही है कि अगर लॉकडाउन बढ़ा तो आने वाले दिनों में आटा, दाल, पैक्ड फूड जैसी ज़रूरी चीज़ों की किल्लत हो सकती है.
लेकिन कई फैक्ट्रियों में उत्पादन रुका हुआ है. जिसका सीधा असर आगे चलकर ग्राहकों यानी हम पर और आप पर पड़ सकता है. फैक्ट्रियों में काम बाधित गुड़गांव चैंबर फॉर कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष विकास जैन चिंता जताते हैं कि अगर लॉक डाउन दो या तीन हफ़्ते बढ़ता है तो ज़रूरी सामान की दिक्कत ज़रूर आएगी. वो कहते हैं, "एफएमसीजी में डिस्ट्रिब्यूटर से लेकर रीटेलर तक भी एक पूरी सप्लाई चेन होती है, जिसमें आम तौर पर तीन-चार हफ्ते का गैप होता है, जिससे उनके पास कम से कम तीन-चार हफ्ते का स्टॉक रहता है. इसलिए तीन-चार हफ्ते के अबतक के लॉकडाउन में कोई दिक्कत नहीं आई. लेकिन इसके आगे अब चुनौतियां आएंगी." वहीं पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स में रिटेल कमिटी के चेयरमैन साकेत डालमिया कहते हैं, "अगले 10 से 15 दिन और काम चल जाएगा, क्योंकि जो ब्रैड पहले कम बिकते थे, अब उनका माल बिकेगा. आपको किसान कैचअप नहीं मिलेगा तो आप मैगी केचअप खोजेंगे, मैगी का नूडल नहीं मिलेगा तो आप दूसरा खोजेंगे. आपको शक्तिभोग आटा नहीं मिलेगा तो आप दूसरा विकल्प देखेंगे. लेकिन उसके बाद चुनौती खड़ी हो जाएगी. इसलिए ज़रूरी है कि फैक्ट्रियों को चलाने के लिए क़दम उठाए जाएं." वो बताते हैं, "किसी भी फूड फैक्ट्री की लाइन लगातार चलानी पड़ती है, क्योंकि फैक्ट्री में हाइजीन, स्टैंडर्ड सब रखना है. उसके साथ ही उसे माइक्रो बायोलॉजी भी मैनटेन करनी होती है. लेकिन अगर लाइन स्टार्ट और स्टॉप पर चलती है तो फैक्ट्री की कॉस्ट बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि उसे बार-बार साफ करके चलाना और फिर उसे सेनेटाइज़ करना पड़ता है. स्टार्ट - स्टॉप की वजह से बीच-बीच में प्रोडक्ट खराब होने का खतरा भी रहता है." फैक्ट्रियों को इसलिए अपना उत्पादन बीच-बीच में रोकना पड़ रहा है क्योंकि ट्रक ड्राइवर कम हैं, इसलिए बहुत कम चक्कर लगा रहे हैं. आटा, दाल, चावल वो कहते हैं, "ट्रक वालों को रास्ते में ना कहीं चाय-पानी मिलता और ना कहीं खाना मिलता है. कुछ ट्रांसपोर्टेशन हो भी रहा है तो किराए ज़्यादा हो गया है. जैसे मध्य प्रदेश से आने वाला चना पहले 150 रुपए प्रति क्विंटल में आता था अब प्रति क्विंटल ढाई सौ रुपए में आ रहा है." लेबर की कमी की वजह से फूड ग्रेन की ज़्यादातर पैकेजिंग इंडस्ट्री बंद हैं, जिन्हें वो खोले जाने की मांग करते हैं. वो कहते हैं कि अगर मिल में आटा बना तो उसे पैक भी तो करना पड़ेगा.
अगर चावल तैयार है, लेकिन उसे पैक करने के लिए थैला नहीं मिलेगा तो कैसे काम चलेगा. गेहं तैयार है और गेहूं का बोरा नहीं मिलेगा तो कैसे काम चलेगा. लेबर और ट्रांस्पोर्टेशन असल दिक्कत कैट, ऑल इंडियन ट्रांसपोर्टर्स वेलफेयर एसोसिएशन से इस बारे में चर्चा कर रही है, जिससे उनके मुताबिक, पिछले दो-तीन दिन में स्थिति कुछ बेहतर हुई है. लेकिन अभी भी ट्रांसपोर्ट पूरी तरीके से ऑपरेट नहीं हो रहा है. दअसल सरकार ने पहले ट्रकों से सिर्फ ज़रूरी सामानों के ट्रांसपोर्टेशन को अनुमति दी थी. लेकिन अगर ट्रकों को किसी एक जगह से ज़रूरी सामान उठाना है तो वो वहां तक खाली तो जाएगा नहीं, इस नुकसान के बारे में सोचकर कई ट्रक रुक गए. एक हफ्ते बाद सरकार ने कहा कि अब गैर-ज़रूरी सामानों को लेकर भी ट्रक चल सकते हैं, लेकिन तबतक कई लोग अपने घरों को लौट चुके थे. कैट के अध्यक्ष प्रवीण खंडेलवाल ने बीबीसी हिंदी से कहा कि स्पलाई चेन से जुड़े सभी वर्गों की आपसी भागीदारी बहुत ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि थोक व्यापारियों/वितरकों, खुदरा विक्रेताओं, निर्माताओं या उत्पादकों, ट्रांसपोर्टरों, कूरियर सेवाओं, आवश्यक वस्तुओं के लिए ज़रूरी कच्चे माल निर्माताओं या उत्पादकों समेत पैकेजिंग उत्पादों के उत्पादकों के बीच ज़्यादा तालमेल की ज़रूरत है. ये सुझाव भी दिए जा रहे हैं कि उन प्लांट्स को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जिनके वर्कर को वहीं रहने की जगह दी जाती है या जिन्हें ज़्यादा दूर तक ट्रेवल नहीं करना पड़ता. साथ ही मालिक, वर्करों को खाना और सही हेल्थकेयर दें और साफ सफाई का ध्यान रखें. एफएमसीजी भारतीय अर्थव्यवस्था में चौथा सबसे बड़ा सेक्टर है. ज़रूरी रों मेटेरियल, सस्ते लेबर और पूरी वेल्यू चेन में मौजूदगी होने की वजह से भारत मार्केट में कड़ी टक्कर देता है. 2017-18 में एफएमसीजी सेक्टर की कमाई करीब तीन लाख 68 हज़ार करोड़ रुपए रही थी, जिसके 2020 तक बढ़कर करीब सात लाख 25 हज़ार करोड़ रुपए होने का अनुमान था. ग्रामीण इलाकों का इसमें करीब 45 प्रतिशत योगदान माना जाता है.