|| नाम-राम-:कथा:- 232 ||
|| रामनाममहामंत्रों विजयते||
|| रामनामाकंनायः परंमुच्यते||
||रामम् शरणम् गच्छामी,रामनामम् शरण गच्छामी् ||
||श्री रामस्वरूपायैः रामनामविग्रहायै नमः||
जो भी मानव पतो को फलों तनो को शाखाओं को सींचना छोड़ कर बीज ( मूल:-जड) को सींचना आरम्भ कर देता हैं,,वह व्यक्ति ही परमपद से सुशोभित होता हैं।
भगवान पार ब्रह्म परमेश्वर,"राम" को छोड़ कर या राम नाम को छोड़ कर किसी अन्य की शरण जाता हैं, वो मानो कि, जड़ को नहीं बल्कि उसकी शाखाओं को,पतो को सींचता हैं, ।
ऐसा ज्ञान व्यर्थ हैं जो कि,जडॊ के बजाय पतों को सींचना सिखाता हों ! अच्छा जो स्वयं देवी देवता अपने मूल को नहीं जान पाते, जो स्वयंभू गुरू अपने को पुजवातें हैं, तो न तो वो स्वयं अपने मूल से परिचित हो पाये और न हीं वो अपने मूल बीज को जान पायें। । और जो स्वयं नहीं जान पाये वो आपको और हमको क्या जना पायेगें ?
बन्धुओं रामनामाकंन करना सीधा बीज को ही जानना हैं। रामनामाकंन करना मूल को सींचना हैं। रामनामाकंन करना, जगत के समस्त भटकाव से भिन्न अपने मूल स्वरूप से परिचित होना हैं,। रामनामाकंन करना अपने आपको प्रेम करना हैं। अपनाआप अर्थात परमात्मा का निजस्वरूप, जो समस्त जगतका मूल हैं।
भगवान ने रामरूप में कहा कि, मैं अरू मौर मूढता त्यागु""". यह मैरा तैरा वाला जो मैं रुपी अहं पाल रखा हैं यह मूढ़ता त्यागते ही मेरे मूल स्वरूपसे साक्षात्कार कर लेगा। तो भगवान कृष्णावतार में साफ स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि, हे अर्जुन ! तू केवल मेरी शरण में आ :- मैं ही उस जगत का बीज हुं ,यह सारा जगत मेरा उपजाया हुआ हैं।
सम्भूत जन्म ,पालन का स्त्रोत होने के साथ साथ प्रलय के बाद जो कुछ बचता है उसका ही आगार होता हैं, जो यहाँ कुछ नहीं रहने पर भी रहता हैं और जो सब कुछ प्रगट होने पर भी वैसा ही रहता हैं, वो मूल अर्जुन मैं ही हूं । और मैं और मेरे नामकी शरण आने वाला मुझे ही प्राप्त होता हैं, ।
अतः जो परमात्मा का मूल नाम हैं राम" राम " राम '" जो आदि अनादि नाम हैं, जो नाम समस्तगुननिधान होकर भी अगुण वाचक हैं, उस राम नामकी शरण आ, क्योंकि इस समस्त जगत का ही नहीं आध्यात्मिक जगत का भी मूल बीज श्री राम नाम महाराज ही है। । जिसे भक्त अपने भावों से लाखों नाम धरते रहते हैं पर मूल नाम ,मूल बीज "रां" अर्थात राम नाम ही है। यह नाम ही वेदों का प्राण होनेसे प्रणव कहलाता हैं।
गोस्वामी जी लिखते हैं ,"""वेद प्राण सों""
तो मानस में पूजा वंदना में संकल्पित होते भक्त दोहराते हैं, कि, || रामनामबीजम्||
उधर श्री कृष्ण भी कहते हैं,कि हे अर्जुन इस जगत का मूल बीज मैं हूं। तू मात्र मेरे को जान और मेरी शरण आ; मैं तुझे सब जंझटो से मूक्त कर दूंगा।
हे अर्जुन ! तू केवल मेरी शरण आ" यह पहला शब्द उसके बाद दुसरा शब्द कहते हैं कि, तू केवल मुझे ही प्रणाम कर!
तो मूढ़ व्यक्ति जो मैं और मेरे की मूढ़ता को नहीं त्याग सकता ,उसको भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिया गया यह मूल निर्देश कभी समझ नहीं आयेगा।
मूल में देखा जाये तो गीता रामायण के मूल पांच सात शब्दों को समझ के घट में उतार लेता हैं फिर उसकी व्याख्या दुसरों से समझने की आवश्यकता नहीं ।
मानसकार भी निर्देश देते हैं कि, शत पंच चौपाई समझ जानि जो नर उर धरे"" । यह पांच सात जगह पर ही समस्त मानस में मूल निर्देशन दिये गये हैं, तो गीता में भी यह पांच सात शब्द ही मूल मूल कहें हैं,। अर्जुन को कर्म उपासना,ज्ञान के समस्त योगधर्म का व्याख्यान करने के बाद भी और कुछ कहने से पहले भी उन्होंने मूल मूल निर्देशन दिया हैं। जैसे " वासुदेवःसर्वम्'"" और
""""" बीजं मां सर्व भूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् """यह कह कर भगवान नें अपने को संसार का मूल सनातन अव्यय बीज बताया, , फिर कहा कि, चाहे सृष्टि हों या समस्त सृष्टियों का प्रलय हो जाये तब भी मूल बीज रूप से मैं ही विद्यमान रहता हुं।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
फिर कह देते हैं कि, सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।
इसका वैसे तो अर्थ किया गया हैं कि,
हे कौन्तेय! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियों के जितने भी शरीर पैदा होते हैं, उन सब (व्यष्टि शरीरोंकी) मूल प्रकृति तो माता हैं। और बीज मैं स्थापन करने वाला पिता मैं हूँ । बीज भी मैं हूं और बीज स्थापन करने वाला भी में हूं तो बाद पुनः बीज रूप में भी मै ही लोट कर बीज भी मैं ही रहता हूं।
यह सृष्टि चक्र चलता रहता हैं परंतु रूप परिवर्तन के साथ भी उन सब परिवर्तित होने वाले रूपों के मूल में भी मैं बीज रूप से सदा विद्यमान मैं ही हूं। तो रामचरित मानस में जो रामनाम बीजं कह कर जनाया गया कि, यह बाकि सब मेरे देव स्वरूप हैं पर उन सब में भी बीज रूप में ही हूं, रामनाम से ।। ||रामनामबीजम्||
रामचरित मानस का भी बीज "राम" नाम ही हैं।
यथा:- एहि मँह रघुपति नाम उदारा।।
अति पावन पुरान श्रुति सारा।।
उदारा ,उदार रूप से, मानस की प्रत्येक चोपाई,दोहा,सॊरठ,श्लोक सब रकार मकार से अलंकृत हैं। यह उदार रूप बताया, फिर अति पावन बीज बताया।
सभी नाम भगवान के ही हैं, सभी पावन भी हैं, परंतु यहाँ राम नाम को मूल नाम मूल बीज स्वरूप बताते हुए बताया कि, यह राम नाम पावन नहीं बल्कि अति पावन हैं क्योंकि यह बीज हैं।
"""रामनामबीज्ं "" तो जहां सम्पूर्ण रामचरित मानस मानो कि विशाल बटवृक्ष है। पर राम नाम उस विसाल बरगद के पेड का जो अदृष्ट अतिसुक्ष्म बीज हैं, जिसको देखने जाओ तो आंखों से दिखाई भी नहीं देता इतना सुक्ष्म हैं। , परंतु उस अति सुक्षम बीज में कितना विसाल बटवृक्ष समाया हुआ हैं, और एक ही नहीं अनंत अनंत बटवृक्ष उस एक बीज में समाहित रहते हैं, ऎसे ही एक रामचरित मानस ही नहीं अनंत अनंत रामायण इस रामनामरूपी बीज में समाहित हैं। अतः
मानो कि बीज हाथ आगया तो वृक्ष जहां चाहों उगालो, वैसे ही रामनाम बीज हाथ लग गया तो राम को जहां चाहो वहाँ प्रगट करलो।
अतः रामनामबीजम् की शरणागति, रामनाममहाराज की शरणागति से स्वयं राम वहीं प्रगट हो जायेगें। रामदर्श तहं जहं नाम निवासु, जहां रामनामाकंन होगा वहाँ रामदर्श भी हो जायेगा।
नाम के पिछे नामी खीचा चला आता हैं।
राम नाम के पिच्छे रामको खीचा चला आना पडता हैं, ऎसे मानस में भी प्रकट उदाहरण भरे पडे़ है। और भाई साहब किसी भी उदाहरण से आपको हमको क्या मिलने वाला हैं, हां जिनके कुछ संशय हों मन में उनके संशय निवारण में तो उदाहरण आंशिक सहयोगी हो सकते हैं। पर उन उदाहरणों से हमारे अपने अनुभव में कुछ नहीं आने वाला।
हमें तो अपना स्वयं द्वारा ही सतत् सप्रेम, ससकंल्प रामनामाकंन करते हुए रामको अपने घटमें प्रकट करने से ही अनुभूति होगी, अन्यथा शास्त्रों में कितना ही ब्रह्म का रामका, वर्णन किया गया हों ? गीता में स्वयं कृष्ण द्वारा अर्जुन को साक्षात् स्वयं कृष्ण ने बार बार समझाया हों परंतु जब तक मन बुद्धि चित्त अहं की दृष्टि को त्याग कर सहज अवस्था में स्थित उस विशिष्ट सहजावस्थामय दिव्यदृष्टि अर्थात थर्ड आइ के बिना देखपाना,अनुभव कर पानाअसंभव हैं। अतः उस दिव्य अनुभव के लिये ,उस दिव्य दृष्टि के लिए हमें रामनाम जो उस पारब्रह्म परमेश्वर निर्गुण निराकार और सगुण साकार का बीज हैं उसकी शरण में जाना चाहिए ।अतः सदा सप्रेम रामनामाकंन । करना ,कराना। और बो भी मूल में निराभाव लिए ।
रामनामाकंनम् विजयते"""
रामनाममहाराज की जयहों।।।