तुझे क्या कहूं* *बीमारी कहूं कि बहार कहूं* - श्रीमती मोनिका उपाध्याय ( सह सम्पादक)


 *तुझे क्या कहूं*


*बीमारी कहूं कि बहार कहूं*


*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*


*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*


*कहो तुझे क्या कहूं* .


*मानव जो उदंड था*


*पाप का प्रचंड था*


*सामर्थ्य का घमंड था*


*मानवता खंड-खंड था*


. *नदियां सारी त्रस्त थी*


*सड़के सारी व्यस्त थी*


*जंगलों में आग थी*


*हवाओं में राख थी*


*कोलाहल का स्वर था*


*खतरे में जीवो का घर था*


*चांद पर पहले थे*


*वसुधा के दर्द बड़े गहरे थे*


*फिर अचानक तू आई*


*मृत्यु का खौफ लाई*


*मानवों को डराई*


*विज्ञान भी घबराई* .


*लोग यूं मरने लगे*


*खुद को घरों में भरने लगे*


*इच्छाओं को सीमित करने लगे*


*प्रकृति से डरने लगे* .


*अब लोग सारे बंद है*


*नदिया स्वच्छंद है*


*हवाओं में सुगंध है*


*वनों में आनंद है* .


*जीव सारे मस्त हैं*


*वातावरण भी स्वस्थ है*


*पक्षी स्वरों में गा रहे*


*तितलियां इतरा रही* .


*अब तुम ही कहो तुझे क्या कहूं*


*बीमारी कहूं कि बहार कहूं* .


*पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं*


*संतुलन कहूं कि संहार कहूं*


*कहो तुझे क्या कहूं* *