अपराधियों, पुलिस और राजनेताओं के गठजोड़ पर निर्णायक प्रहार का समय - अरुण पटेल -

  लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक है


ससाभार- दैनिक समाचार पत्र सुबह सवेरे



 पिछले दो दशक से देश व प्रदेशों की राजनीति में एक अलग किस्म का गठजोड़ बन गया है जो आर्थिक से लेकर हर तरह के अपराध कर रहा है और तरह-तरह के माफिया जो उभरकर सामने आ रहे हैं उनका कारोबार उस स्थिति के बिना नहीं फलफूल सकता जब तक कि उनकी पहुंच और गठजोड़ कुछ राजनेताओं एवं आला से लेकर निचले स्तर तक के पुलिस अधिकारियों से ना हो।


ऐसे मामलों में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है और सबके अपने-अपने बाहुबली एवं अपराध का तानाबाना बुनने वाले खूंखार लोग हैं। ये समाज के लिए तो खतरा हैं ही इसके साथ ही व्यवस्था को घुन लगाने के लिए भी जवाबदेह हैं। आठ पुलिस कर्मियों की हत्या कर उज्जैन तक पहुंच जाना और बाद में एनकाउंटर में मारा जाना भले ही अपने आपमें लाखों सवाल लिए हुए हो लेकिन इस सबके बावजूद एक हकीकत यह भी है कि विकास दुबे जैसे लोग इसी गठजोड़ का चेहरा होते हैं और अब समय आ गया है कि ऐसे गठजोड़ों पर पूरी निर्ममता से प्रहार किया जाए। सभी दलों के राष्ट्रीय नेतृत्व और जिम्मेदार पदों पर बैठे राजनेता और अधिकारियों को अब इसके राजनीतिक और व्यक्तिगत लाभ-हानि के मोहपाश से बाहर निकल कर समाज, राजनीति व देश में जो गंदगी फैल रही है उसके खात्मे के लिए निर्णायक प्रहार करने आम सहमति बनाना चाहिए। यदि अब भी इस प्रकार के मामलों में प्रभावी कार्रवाई नहीं होती है तो फिर कानून व्यवस्था व न्यायिक प्रणाली से जन-विश्‍वास जो पहले ही डगमगा रहा है उसे पूरी तरह उठने में देर नहीं लगेगी। न्यायदान में देरी तथा अपराधियों का बच निकलना ऐसी जनभावना पैदा कर रहा है जिसमें खूंखार अपराधियों के एनकाउंटर से आमजन खुश होता है। न्याय में देरी अन्याय के ही समान है और अपराधियों के बच निकलने के लिए न्यायपालिका को कम अपराधियों और पुलिस के उस गठजोड़ को अधिक जिम्मेदार माना जायेगा जिसके चलते जानबूझ कर लचर मामले बनाये जाते हैं जो कि अदालत में टिक नहीं पाते। जहां तक न्यायिक देरी का सवाल है उसको लेकर यही कहा जा सकता है कि हमारी न्याय प्रणाली की रफ्तार कुछ अधिक ही धीमी है और फैसला देर से आने के कारण ही अपराधियों के हौंसले बुलन्द होते हैं। इसलिए यह जरुरी है कि इस प्रकार के मामलों में जिस भी स्तर से लेटलतीफी की जाती है उसे दूर किया जाए और जो इसके लिए जिम्मेदार हो उस पर कार्रवाई की जाए। कई बार पेशी पर पेशी पड़ती हैं और अधिवक्ता लोग भी मामले को टालने की कोशिश करते हैं तो कई बार गवाह ही बदल जाते हैं या उन्हें गवाही बदलने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। मामले का अनुसंधान करने वाले अधिकारी या तो जानबूझकर या कभी-कभी अनजाने में ऐसी गलतियां कर देते हैं जो अंतत: अपराधियों को सजा से बचाने में मददगार होती हैं। ऐसे मामलों में अधिकतर यही पाया गया है कि या तो यह आर्थिक लाभ के लिए होता है या फिर राजनीतिक दबाव-वश पुलिस के हाथ बंध जाते हैं। हमारा कानून अंधा होता है इसलिए अदालतों में न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी रहती है। इसका मतलब यह है कि उसके सामने जो साक्ष्य व गवाह प्रस्तुत होंगे उसके आधार पर न्यायालय को फैसला करना है, इससे इतर जाकर न्यायाधीश फैसला नहीं दे सकता। कई बार तथ्यों में ऐसे परस्पर विरोधाभास उभर कर सामने आ जाते हैं जिसका फायदा अपराधियों को मिल जाता है। पुलिस इस धारणा पर अपना काम प्रारंभ करती है कि वह व्यक्तियों को अपराधी मानकर अपनी छानबीन प्रारंभ करती है तो न्यायालय का सिद्धान्त यह है कि वह हर व्यक्ति को पहले निर्दोष मानता है और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर न्याय की कसौटी पर कसकर अपना फैसला सुनाता है। कई मामलों में न्यायाधीशों ने खुलकर पुलिस जांच पड़ताल पर सवाल करते हुए फैसले में इस बात का भी उल्लेख किया है कि हम भारी मन से अपराधी को छोड़ रहे हैं क्योंकि पुलिस पुख्ता सुबूत पेश करने में असफल रही है। भीड़ द्वारा अपराधी को पकड़ कर उसे वहीं सजा देने या मॉवलिचिंग की जो घटनाएं बढ़ रही हैं उसका एक कारण यह भी है कि लोगों का व्यवस्था से विश्‍वास डॉवाडोल हो रहा है और त्वरित न्याय मौके पर ही करने की प्रवृत्ति लोगों में इसलिए बढ़ रही है क्योंकि उनका धैर्य भी लगभग चुकने की स्थिति में पहुंच गया है। जहां तक अपराधियों का सवाल है वे बेखौफ हैं क्योंकि उनके सिर पर किसी न किसी राजनेता और रसूखदार का हाथ है और पुलिस के कुछ लोग उनकी जेब में हैं। आर्थिक रुप से वे इतने सम्पन्न हो गए हैं कि बड़े-बड़े वकीलों को अपने बचाव में अदालत में खड़ा कर सकते हैं। राजनीति में सत्ता में आने के लिए अब साधन और साध्य की पवित्रता के लिए कोई स्थान नहीं बचा है और ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता में आना और यदि आ गए हैं तो उसमें बने रहना आम आदत बन गयी है। आज सत्ता की हवस पूरी करने के लिए एवं राजनीति में शार्टकट अपनाने के लिए असामाजिक तत्वों, खूंखार अपराधियों, तरह-तरह के माफियाओं का सहारा लेने में किसी को परहेज नहीं रहा है। पिछले तीन दशक में उत्तरप्रदेश-बिहार जैसे राज्यों में इस प्रकार की प्रवृत्तियां बढ़ी हैं जो कि धीरे-धीरे पूरे देश में फैलती जा रही हैं। जबसे राजनीति में जातिवाद का उभार हुआ है और जातियों के नेता व पार्टियां बनने लगी हैं तबसे राजनीति में अपराधियों की पौ-बारह हो गयी। ऐसे हालातों का मुकाबला करने के लिए सभी दलों के कुछ राजनेताओं ने अपने-अपने ढंग व सुविधा और राजनीतिक लाभ के लिए उन्हें संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया है। मनी और मसल-पॉवर के बढ़ते हुए प्रचलन ने भी हालात बद से बदतर बनाने में उत्प्रेरक का काम ही किया है। नेताओं को अपने-अपने बचाव में या अपनी सत्ता की लिप्सा को यह कहते हुए सैद्धांतिक मुलम्मा चढ़ाने से भी परहेज नहीं रहा है कि हम साधु-संतो की जमात नहीं हैं और हमारी भी कुछ महत्वाकांक्षाएं हैं। विपक्ष का काम यदि घटना में मीन-मेख निकालना है और सवाल सही उठ रहे हैं तो उनका जवाब मिलना ही चाहिए। सत्ताधारी दल का यह काम नहीं है कि यदि प्रशासनिक स्तर पर कोई चूक हुई तो वह अधिकारियों का सुरक्षा कवच बने। और यह भी विकास दुबे की गिरफतारी, आत्मसमर्पण और उसका एनकाउंटर अपने आपमें जिस ढंग से हुआ उसको देखते हुए यह रहस्यमय है और किसी फिल्म की पटकथा अधिक नजर आ रही है। इस बात पर से पर्दा उठना ही चाहिए कि उसे किस-किस का राजनीतिक और किन-किन अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त था तथा किस प्रकार वह उज्जैन तक पहुंच गया और किसी की उस पर नजर नहीं पड़ी। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और अन्य नेताओं ने जो सवाल उठाये हैं उनका उत्तर मिलना ही चाहिए, लेकिन यदि भाजपा सरकारें इसे विपक्ष की बात मानकर इसका उत्तर देना मुनासिब नहीं समझती हैं तो उन्हें कम से कम उनकी अपनी नेता उमा भारती जो मोदी सरकार में मंत्री रही हैं और मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री भी रही हैं, के सवालों का जवाब अवश्य देना चाहिये। एक तरफ उन्होंने उत्तरप्रदेश पुलिस को बधाई दी तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा पर सवाल भी दागे। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है कि यूपी पुलिस की जय हो, विकास दुबे ने भागने की कोशिश की लेकिन वह मार गिराया गया। उमा भारती ने यह भी सवाल किया है कि विकास उज्जैन तक कैसे पहुंचा, वह महाकाल मंदिर परिसर में कितनी देर रहा और उसका चेहरा टीवी पर इतना दिखा कि उसको कोई भी पहचान लेता तो फिर उसे पहचानने में इतना समय क्यों लगा। प्रियंका गांधी ने अपने ट्वीट में कहा है कि अपराधी का अन्त हो गया, अपराध और उसको संरक्षरण देने वाले लोगों का क्या ? लाख टके का सवाल यही है कि दुबे के एनकाउंटर के साथ ही जो रहस्य का तानाबाना उसके सीने में दफन हो गया उसका खुलासा हो सकेगा या नहीं।


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